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Thursday, September 28, 2023

औरैया के बीहड़वासियों को डाकुओं से तो निजात मिली, मगर विकास नहीं हुआ

अर्थव्यवस्थाऔरैया के बीहड़वासियों को डाकुओं से तो निजात मिली, मगर विकास नहीं हुआ

उत्तर प्रदेश के औरैया जिले में यमुना के बीहड़ों में बसे दर्जनों गांवों में दशकों तक डाकुओं की गोलियों की गूंज सुनी और उनकी दासता स्वीकार कर चुनाव के दौरान उनके फरमानों पर मतदान किया लेकिन किसी भी जनप्रतिनिधि ने अभी तक कोई विकास नहीं किया।

औरैया: उत्तर प्रदेश के औरैया जिले में करीब 25 किलोमीटर लम्बे यमुना के बीहड़ों में बसे दर्जनों गांवों के वाशिंदों ने 5 से 6 दशकों तक डाकुओं की गोलियों की गूंज सुनी और उनकी दासता स्वीकार कर चुनाव के दौरान उनके फरमानों पर मतदान किया।

अब करीब एक दशक से डाकुओं से मुक्ति मिली और अपनी स्वेच्छा से अपना जनप्रतिनिधि चुनने का मौका मिला तो जिसे भी जनप्रतिनिधि चुना उसने भी विकास पर कोई ध्यान न देकर उनकी भावनाओं को लूटने का ही काम किया है।

औरैया जिले में यमुना किनारे बीहड़ों में बसे दर्जनों गांवों जिनमें सिकरोढ़ी, बढ़ेरा, भूरेपुर कलां, जाजपुर, मलगवां मंदिर, गौहानी खुर्द, गौहानी कलां, कैथौली, असेवा, ततारपुर, असेवटा, बबाइन, सेंगनपुर, जुहीखा, कुआं गांव, फरिहा, बटपुरा, त्यौरलालपुर, भूरेपुरा, पाकर का पुर्वा, करके का पुर्वा, भरतौल, सिखरना, बीजलपुर, सिहौली, सढ़रापुर, गंगदासपुरा, रहटौली, भासौन, अस्ता, मई मानपुर, रोशनपुर, रम्पुरा आदि में 5 से 6 दशकों तक सिर्फ डाकुओं की गोलियों और चुनाव के दौरान फरमानों की गूंज सुनाई देती थी, जिससे यहां के निरीह निवासी पचासों साल पीड़ित रहे और कई बार अपनों को खोने का दंश झेला।

बिना किसी कारण उनके अपनों को डाकुओं की गोली का शिकार होना पड़ा।

बीहड़ों में डाकुओं के आतंक व उत्पात देश की गुलामी के समय से शुरू हो गया था यों कहें कि बागी मान सिंह के समय से शुरू हुआ और बाद मोहर सिंह, माधव सिंह, मलखान सिंह से फूलन देवी, विक्रम मल्लाह, लाला राम, कुसुमा नाईन, श्री राम, फक्कड़ तिवारी, सलीम गुर्जर, निर्भय गुर्जर तक के नाम से इलाके की जनता थर्रा उठती थी।

चम्बल घाटी से लेकर यमुना के बीहड़ों में डाकू गिरोहों के जातीय संघर्षों व मुखबिरी की शक के चलते बीहड़ में बसे गांवों में ना जाने कितने परिवार उजड़ गए।

अपने को बादशाह साबित करने के लिए खूंखार डाकू गिरोहों के खतरनाक असलहे कई बार आमने सामने हुए, मगर बदमाशों के असलहों से निकली गोलियों का शिकार इलाके की गरीब और निरीह जनता ही हुयी।

1980 के दशक में आये दिन डाकू गिरोहों द्वारा किये जाने वाले नरसंहार को सुन सूबे की सरकार का भी पसीना छूट जाता था।

डाकुओं की दरिंदगी के चलते कई गाँव खाली हो गए थे, कई परिवारों का सामूहिक कत्लेआम कर बीहड़ में ठहाके लगाने वाले डाकू राजनीति की सीढ़ी के सहारे देश की संसद में पहुँच गए।

लेकिन इन्साफ की आस में सैकड़ों पीड़ित परिवार आज भी कोर्ट कचहरी का चक्कर लगा रहे हैं।

जवानी में बिधवा हुयी महिलाए बूढी हो गयीं, मगर सरकार का कोई भी नुमाइंदा उनकी खोजखबर लेने नहीं पहुंचा।

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