जिस सोशल मीडिया के जरिए बीजेपी ने अपनी छवि बनाई थी, आज उसी सोशल मीडिया ने लोगों के सामने सच्चाई का पर्दाफाश कर दिया है।
लेख: डॉ. यामीन अंसारी
समाचारों की दुनीया
एक समय था जब समाचारों के लिए शाम या अगले दिन का इंतजार करना पड़ता था। शाम को रेडियो या सुबह जब समाचार पत्र हाथ में आता तो पता चलता कि शहर, देश और दुनिया में क्या हलचल है और कौन सी घटनाएँ और दुर्घटनाएँ घटी हैं। फिर दूरदर्शन और निजी समाचार चैनलों का युग आया। पहले शाम को पूरे दिन के समाचार और फिर हर घंटे घटनाओं की श्रृंखला आरंभ हो गई, परंतु हर गुजरते दिन के साथ खबरों की दुनिया बदलती गई।
पहले तो समाचार केवल सुचना तक ही सीमित था, फिर समाचारों पर नकारात्मक और सकारात्मक और सरकार के समर्थन और विरोध का रंग चढ़ने लगा। सोने पर सुहागा यह कि जब निजी चैनलों ने एक विशेष एजंडे के साथ समाचारों के साथ वहस का सिलसिला शुरू किया तो मीडिया का पूरा परिदृश्य ही बदल गया।
इस व्यस्त जीवन में भी ये चैनल देश में अपना एजेंडा थोपने में सफल हो गए। पहले मेट्रो शहरों में, फिर छोटे शहरों और क़स्बों में और फिर गांवों में एक खास मकसद के तहत और एक विशेष राजनीतिक दल के एजेंडे के अनुसार उनकी यह मुहिम रंग लाई। इससे भी मन नहीं भरा तो सोशल मीडिया का सहारा लिया गया। जी
सोशल मीडिया का राजनीतिक इस्तेमाल
वन की सारी व्यस्तता के बावजूद समाचार प्राप्त करने में सोशल मीडिया उपयोगी तो साबित हुआ, पर अत्यधिक नकारात्मक उपयोग ने सोशल मीडिया की उपयोगिता को मिट्टी में मिला दिया। इसने भले ही सोशल मीडिया के महत्व और उपयोगिता को नुक़सान पहुंचाया, लेकिन बीजेपी ने 2014 के आम चुनावों और उससे पहले इसका भरपूर इस्तेमाल किया। सोशल मीडिया के इस्तेमाल में बीजेपी ने कांग्रेस समेत तमाम राजनीतिक दलों को पीछे छोड़ दिया।
सत्ता में आने के बाद भी भाजपा ने सोशल मीडिया का पूरा फायदा उठाया, चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक। अब लगता है 2021 आते आते यही सोशल मीडिया भाजपा की नजरों में खटकने लगा है। बीजेपी ने जिस सोशल मीडिया के जरिए लोगों को गुमराह किया और अपनी छवि बनाई, आज उसी सोशल मीडिया ने लोगों को सच्चाई से रूबरू करा दिया है।
समय समय की बात है जो हमेशा एक जैसा नही रहता। सोशल मीडिया ने ही अगर किसी को आसमान की बुलंदियों पर पहुंचाया है तो किसी का अस्ल चेहरा भी सामने ले आया है। खासकर कोरोना महामारी के दौरान बीजेपी, उसकी सरकारों और उसके नेताओं के दावों की क़लई खोल कर रख दी है।
निष्पक्ष सोशल मीडिया?
सख्त मुश्किल की इस घड़ी में लोग दवा, इलाज, अस्पताल, ऑक्सीजन, वेंटिलेटर के लिए दर दर का ठोकरें खाते रहे, अस्पतालों के बाहर लाइन में लगे लोग मरते रहे। हद तो यह है कि मरने के बाद भी लोग अपने धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार के अधिकार से भी वंचित हो गए। उनके परिवार के लोग घंटों लाइन में लगने के बाद भी अपनों को सम्मान के साथ आखरी विदाई नहीं दे सके।
सरकार ने “अपने मीडिया” के माध्यम से यह सब छिपाने का पूरा प्रयास किया, पर सोशल मीडिया और तटस्थ मुख्यधारा के मीडिया ने सरकार की सच्चाई को दुनिया के सामने उजागर कर दिया। यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने भी सच बताकर मौजूदा सरकार और उसके कारिंदों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं।
अब सरकार चिंतित है। चिंता इस बात की नहीं है कि देश की जनता पर दुखों के जो पहाड़ टूटे हैं, उस पर कैसे मरहम रखा जाए, बल्कि धारणाओं के आधार पर दुनिया के सामने उसने जो छवि बनाई है, उसे कैसे बनाए रखा जाए। इसलिए बीजेपी सरकार अब अपनी खामियों, अपनी नाकामियों और अपनी आलोचनाओं को बर्दाश्त नहीं कर पा रही है।
क्या सोशल मीडिया से डरती है सरकार?
जिस सोशल मीडिया को वो अपना मुख्य हथियार मानती थी, अब उसी से डर लग रहा है। हाल के दिनों में सोशल मीडिया को लेकर सरकार की गतिविधियों और कार्यवाहियों से तो यही पता चलता है। चंद दिनों पहले दिल्ली में पुलिस ने ट्विटर इंडिया के विभिन्न कार्यालयों में छापेमारी की। पुलिस ने कहा कि यह छापे ‘टूलकिट’ जांच के सिलसिले में मारे गए थे।
इससे पहले दिल्ली पुलिस ने ट्विटर इंडिया को नोटिस जारी करके बीजेपी नेता संबित पात्रा के ट्वीट को ‘मैन्यूपुलेटिड मीडिया’ बताए जाने के मामले में सबूत पेश करने को कहा था। जिस पर ट्विटर ने कहा कि इस संबंध में जानकारी देना जरूरी नहीं है।
टूलकिट मुद्दा
संबित पात्रा ने 18 मई को एक संदिघ्ध टूलकिट शेयर की थी जो कांग्रेस के लेटर हेड पर थी। इसमें बताया गया था कि सोशल मीडिया पर ट्वीट और जानकारी कैसे साझा करनी है। इस पर बीजेपी के तमाम नेता कांग्रेस पर हमला बोल रहे थे तो दूसरी तरफ कांग्रेस ने इसे फर्ज़ी बताया था। पार्टी ने इसके खिलाफ पुलिस में शिकायत भी दर्ज कराई थी। अगले ही दिन ट्विटर ने कार्रवाई करते हुए संबित पात्रा के ट्वीट को ‘भ्रामक’ यानी मैन्यूपुलेटिड मीडिया’ क़रार दिया था।
दर अस्ल ट्विटर की एक पालिसी है, जिसके अनुसार अगर आप कोई भी जानकारी ट्वीट करते हैं और यह तथ्यों के खिलाफ है, तो उसपर एक लेबल लगा दिया जाता है, लेकिन ऐसा लगता है कि भाजपा और सरकार इससे बहुत नाराज हैं।
इससे पहले भाजपा को खुश करने के चक्कर में और अपनी नफरत की मुहिम को परवान चढाने के कारण कंगना रनौत के ट्विटर अकाउंट को स्थायी रूप से निलंबित कर दिया गया। अभी टूलकिट विवाद चल ही रहा था कि विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अब एक नई दुविधा का सामना कर रहे हैं।
सरकार ने इसी साल 4 फरवरी को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के लिए गाइडलाइंस जारी की थी और उन्हें लागू करने के लिए उन्हें तीन महीने का समय दिया था। 25 मई को दिया गया समय समाप्त हो गया। अगले ही दिन केंद्र सरकार ने प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को पत्र लिखकर पूछा कि क्या उन्होंने आज से प्रभावी होने वाले नए डिजिटल नियमों का पालन किया है और इस मामले में फौरन ही उनसे जवाब मांगा।
फेसबुक की प्रतिक्रिया
फेसबुक, व्हॉट्सएप और ट्विटर जैसे प्लेटफॉर्म्स को जिन नियमों का पालन करने के लिए तीन महीने का समय दिया गया था, उसके अनुसार उन्हें भारत में एक अनुपालन अधिकारी नियुक्त करने, शिकायत प्रतिक्रिया तंत्र स्थापित करने और कानूनी आदेश के 36 घंटे के भीतर कथित सामग्री को हटाने के लिए कहा था।
इलेक्ट्रॉनिकी और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (Ministry of Electronics and Information Technology (MeitY)) ने शीर्ष कंपनियों से जानकारी मांगी है और इस बात पर जोर दिया है कि कंपनियां इसकी पुष्टि करें और अपना जवाब जल्द से जल्द दें। वहीं सरकार के डिजिटल नियमों के खिलाफ व्हाट्सऐप ने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया है।
मध्यस्थ दिशा-निर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता कहती है कि “महत्वपूर्ण सोशल मीडिया मध्यस्थ” या ऐसी साइटें जो तीसरे पक्ष की जानकारी, संदेश और पोस्ट होस्ट करती हैं, यदि वे नियमों का पालन करने में विफल रहती हैं, तो वे मुकदमों और अभियोजन से सुरक्षा खो देती हैं। इसका मतलब यह है कि बड़ी टेक कंपनियां अब केवल बिचौलिया नहीं रह सकतीं, जिसने उन्हें उपयोगकर्ताओं द्वारा पोस्ट की गई आपत्तिजनक सामग्री से कानूनी प्रतिरक्षा प्रदान की, उन्हें किसी भी अन्य प्रकाशन मंच के रूप में माना जाएगा और उन पर कार्रवाई हो सकती है। फेसबुक और गूगल ने कहा है कि वे अनुपालन सुनिश्चित करेंगे. फेसबुक का यह भी कहना है कि वह कुछ ऐसे मुद्दों पर चर्चा करना चाहता है, जिनमें और जुड़ाव की जरूरत है. ट्विटर ने फिलहाल इसपर जवाब नहीं दिया है।
आलोचना गवारा नहीं?
बहरहाल, इन कार्रवाइयों को देखते हुए ऐसा लगता है कि हमारा देश अब एक ऐसा देश बनता जा रहा है जहां विपक्ष या विरोधियों के द्वारा आलोचना बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं की जाएगी। दुनिया भर के संस्थानों, सरकारों, पार्टियों और संगठनों पर एक सीमा में आलोचना और विरोध करना आम बात है, पर यहां ऐसा लगता है कि उस दायरे को संकीर्ण करने का प्रयास किया जा रहा है।
सोशल मीडिया से पहले अखबारों, टेलीविजन और जनसभाओं के माध्यम से आलोचना की जाती थी, परंतु सोशल मीडिया के आने के बाद यह विरोध और आलोचना का एक प्रमुख स्रोत बन गया। यदि हम ग़ौर करें तो मौजूदा कोरोना महामारी के संकट में लोगों को इसी सोशल मीडिया ने बड़ा सहारा दिया है।
हर तरफ से निराश और ना-उम्मीद हो चुके लोगों को सोशल मीडिया के माध्यम से बड़े पैमाने पर मदद मिली और अस्पतालों से लेकर दवा और इलाज तक जरूरतमंदों मिल सका। इसके बाद भी हमने देखा कि सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों की मदद करने वालों को परेशान किया गया। ऐसे में सवाल पैदा होता है कि क्या सोशल मीडिया के साथ साथ लोगों की मदद करने वालों पर भी पहरा बैठा दिया जाएगा? अगर ऐसा होता है, तो यह एक लोकतांत्रिक और स्वतंत्र देश के भविष्य के लिए बेहतर नहीं है।
[लेखक उर्दू दैनिक इंक़लाब के स्थानीय संपादक हैं | Email: yameen@inquilab.com]
लेख में व्यक्त बातें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं