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Thursday, September 28, 2023

अफगानिस्तान: अमेरिका जा रहा है, तालिबान आ रहे हैं!

रायअफगानिस्तान: अमेरिका जा रहा है, तालिबान आ रहे हैं!

अमेरिका 5 साल बाद बहादुर अफगानिस्तान के साथ अपनी विफलता की पोटली बांध रहा है, लेकिन अफगान राष्ट्र के विनाश की एक श्रृंखला को पीछे छोड़ गया है।

लेखक: डॉ. यामीन अंसारी

संयुक्त राज्य अमेरिका दुनिया की महाशक्ति है। वह सबसे बड़ा लोकतंत्र है। जाहिर तौर पर वह मानवाधिकार और न्याय का सबसे बड़ा अलम्बरदार भी है। वह रात को दिन कहे तो दिन है, और दिन को रात कहे तो रात है। वह सोचता है कि दुनिया का कोई भी देश या शासक उसको आँख दिखाने और उससे टकराने की जुर्रत न करे। उसकी सहमति के बिना इस धरती पर कोई पता भी न हिले। अगर ऐसा नहीं होता है या कोई ऐसा नहीं करता है, तो वह अमेरिका का ही नहीं बल्कि मानवता का दुश्मन बन जाता है।

अमेरिका दूसरे देशों में किस तरह का लोकतंत्र चाहता है यह अभी भी एक रहस्य है। भले ही किसी देश की जनता लोकतांत्रिक तरीक़े से अपने नेता का चुनाव करे, पर अगर अमेरिका उसके गले में तानाशाह का पट्टा डाल देता है, तो दुनिया को यह स्वीकार करना होगा कि वह एक तानाशाह है। वहीं दूसरी ओर, यदि एक तानाशाह को वह लोकतांत्रिक राष्ट्राध्यक्ष का पदक दे देता है, तो वह एक लोकतांत्रिक नेता बन जाता है।

अमेरिका ने दुनिया पर अपने फैसले थोपने की कितनी ही कोशिशें की हैं, कितने दी देशों को मलबे के ढेर में बदल दिया हो, कितने ही राष्ट्राध्यक्षों को हमेशा के लिए मौत की नींद सुला दिया हो, लेकिन वास्तव में आज तक कोई उसको विश्व का इकलौता नेता मानने को तैयार नहीं है।

अफगान राष्ट्र के विनाश और विनाश की एक अंतहीन श्रृंखला

२००३ में अमेरिका ने एक समृद्ध और विकसित देश, इराक में “लोकतंत्र” स्थापित करने के लिए हमला किया। उसने राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन की सरकार को उखाड़ फेंका और उन्हें फांसी पर लटका दिया, पर दस साल के बाद वह दस लाख इंसानों की कब्रगाह बनाकर भागा। २०११ में, वह सीरिया को राष्ट्रपति बशर अल-असद की तानाशाही से मुक्त करने के लिए वहां पहुंचा, लेकिन अमेरिका ने वहां ISIS जैसे कई आतंकवादी संगठन पैदा करके यूं ही छोड़ दिया। पूरा देश खंडर में बदल गया। न तानाशाह बशर अल-असद से मुक्ति मिली और न ही वहां कोई लोकतंत्र का नाम लेने वाला बचा।

इससे पहले २००१ में, उसने तालिबान और अल-कायदा के खिलाफ अभियान के नाम पर अफगानिस्तान पर आक्रमण कर दिया। अब बीस साल के बाद अमेरिका वहां से अपनी विफलता की पोटली तो बाँध रहा है, पर अफग़ानिस्तान की तबाही और बर्बादी के एक सिलसिले को पीछे छोड़ गया है। अब जबकि अमेरिका ने अफगानिस्तान से भागने का इंतज़ाम कर लिया है, तो यह समीक्षा करना महत्वपूर्ण है कि उसने और अफगानिस्तान ने इस युद्ध में क्या खोया और क्या पाया है।

अमेरिका ने लगभग अपनी विफलता स्वीकार कर ली

अमेरिका ने अफगानिस्तान में बीस साल पुराने युद्ध की समाप्ति की घोषणा करते हुए अपनी विफलता को लगभग स्वीकार कर लिया है। यह युद्ध अमेरिका के गले में एक ऐसी हड्डी बन गया था जिसे न तो निगल सकता था और न ही उगल सकता था। इसीलिए, जैसे ही बाइडेन अमेरिका के राष्ट्रपति बने, उन्होंने घोषणा की कि ११ सितंबर २०२१ तक सभी अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान से वापस बुला लिए जाएंगे। हालांकि, इसका फैसला पिछले साल कतर में तालिबान के साथ हुए शांति समझौते में हो गया था।

अब अफगानिस्तान में सबसे बड़े सैन्य अड्डे को बंद करने के साथ, ऐसा लगता है कि अमेरिका ने औपचारिक रूप से अफगान युद्ध को समाप्त करने की घोषणा की है। काबुल से लगभग साठ किलोमीटर दूर बगराम एयर बेस से अमेरिकी सैनिकों की वापसी को अफगानिस्तान में अमेरिकी हस्तक्षेप के अंत के रूप में देखा जा रहा है, क्योंकि अमेरिका और उसके सहयोगी इसी एयरबेस से यहां के अपने सभी ऑपरेशन अंजाम देते थे।

११ सितंबर 2001 को अमेरिका में हुए आतंकवादी हमलों का बदला लेने के उद्देश्य से अफगानिस्तान पर आक्रमण किया था। असल में इन हमलों की जिम्मेदारी अल-कायदा के सर जाती थी, जिसका सरग़ना ओसामा बिन लादेन उस समय अफगानिस्तान में तालिबान के अभयारण्य में था। लिहाज़ा अमेरिका ने ७ अक्टूबर २००१ को तालिबान और अलक़ायदा पर हवाई हमले करते हुए “आतंक के खिलाफ वैश्विक युद्ध” शुरू किया। इस युद्ध में एक ओर थे नार्दन एलाइंस, अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, इटली, न्यूजीलैंड और जर्मनी, और दूसरी ओर मुक़ाबले में थे इस्लामी अमीरात अफगानिस्तान, अल कायदा, ०५५ ब्रिगेड, हरकत ए इस्लामी उज्बेकिस्तान, तहरीक-ए-निफ़ाज़ शरीयत-ए-मोहम्मदी और तुर्केस्तान इस्लामिक पार्टी।

१३ नवंबर २००१ को अमेरिकी समर्थित नार्दन एलाइंस की सेना काबुल में प्रवेश कर गई और तालिबान दक्षिण में पीछे हट गए। लगभग एक महीने की बम्बारी और हमलों ने तालिबान को मैदान छोड़ने पर मजबूर कर दिया। २ मई २००३ को अमेरिकी अधिकारियों ने अफगानिस्तान में एक बड़े युद्ध अभियान की समाप्ति की घोषणा की।

तालिबान एक मजबूत ताकत के रूप में उभरा

इसी बीच, मुसलमानों के खून के प्यासे अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के नेतृत्व में अमेरिका ने इराक़ पर आक्रमण की तैयारी शुरू कर दी। जिसके लिए बड़ी संख्या में अमेरिकी सैनिक और सैन्य उपकरण वहां स्थानांतरित कर दिए गए। इधर अफगानिस्तान में भले ही युद्ध की समाप्ति की घोषणा कर दी गई, पर वास्तव में यह युद्ध की शुरुआत साबित हुई।

अमेरिका और उसके सहयोगियों का फोकस इराक़ की ओर होते ही तालिबान, अल कायदा और अन्य चरमपंथी समूहों को फिर से अपने पैर जमाने का अवसर मिल गया, और उन्होंने अफग़ानिस्तान के दक्षिण और पूर्वी इलाक़ों में ख़ुद को मजबूत कर लिया। अब एक बार फिर से तालिबान मज़बूत ताक़त बन कर उभरे हैं और बहुत संभव है कि अमेरिका के जाते ही वह सत्ता में लौट आएं। ऐसी भी आशंका है कि तालिबान सत्ता में नहीं आते हैं तो अफग़ानिस्तान में एक बार फिर गृहयुद्ध छिड़ जाएगा। यानी अफगानियों की क़िसमत में तबाही और बर्बादी का सिलसिला जारी रहेगा।

कहने को तो अफगान युद्ध में अमेरिका का असली उद्देश्य अल कायदा के सरग़ना ओसामा बिन लादेन को पकड़ना था, लेकिन अफगानिस्तान के मैदानों से लेकर तोरा बोरा के पहाड़ों तक, उन्होंने ओसामा की खोज की, लेकिन उसे पकड़ नहीं सके। ओसामा बिन लादेन की भूमिका, उसका जीवन और उसकी मृत्यु आज तक एक रहस्य बनी हुई है।

एक रिपोर्ट के अनुसार, इस २० साल के युद्ध में दो लाख ४१ हज़ार लोग मारे गए। उनमें ७१ हज़ार ३४४ आम नागरिक, २ हज़ार ४४२ अमेरिकी सैनिक, ७८ हज़ार ३१४ अफगान सुरक्षा कर्मी और ८४ हज़ार १९१ विरोधी मारे गए। हाल ही में आई इस रिपोर्ट के अनुसार इस युद्ध में अब तक अमेरिका के २२ खरब ६० अरब डालर ख़र्च हुए हैं।

तालिबान को बेदखल करने वाला अमेरिका फिर उनकी वापसी का है जिम्मेदार

अमेरिका जिस प्रकार अफगानिस्तान को बेबस छोड़ कर जा रहा है, इससे तालिबान का मनोबल जरूर ऊंचा हुआ है। तालिबान इस समय वहां एक मजबूत ताक़त है, और जिस अंदाज़ में अमेरिका पीछा छुड़ा कर भागा है, उसको तालिबान अपनी जीत के रूप में देख रहे हैं। जैसे ही अमेरिका की वापसी की घोषणा की गई और सैनिकों की वापसी शुरू हुई, तालिबान ने एक के बाद एक देश के विभिन्न प्रांतों और शहरों पर कब्जा करना शुरू कर दिया। ये क़ब्ज़े कई जगहों पर खूनी झड़पों के बाद हुए और कई जगहों पर मौजूदा अशरफ ग़नी सरकार के फौजियों ने ख़ुद ही हथियार डाल दिए।

तालिबान के प्रवक्ता जबीहुल्लाह मुजाहिद ने दावा किया है कि तालिबान ने लगभग डेढ सौ जिलों पर पूर्ण नियंत्रण कर लिया है, जिनमें से लगभग १०० ज़िले देश के उत्तर में हैं। यह भी बताया गया है कि लगभग एक हजार अफगान सैनिक अपनी जान बचाने के लिए ताजिकिस्तान में दाखिल हो गए। ऐसा माना जाता है कि तालिबान जल्द ही पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा कर लेंगे और अगर ऐसा होता है, तो तालिबान को सत्ता से बेदखल करने वाला अमेरिका ही उनकी वापसी के लिए भी जिम्मेदार होगा।

इसके साथ ही पड़ोसी देशों और जिनके हित अफगानिस्तान से जुड़े हुए हैं, जैसे पाकिस्तान, ईरान, भारत, चीन, रूस और ताजिकिस्तान आदि न केवल अफगानिस्तान की मौजूदा स्थिति पर ध्यान केंद्रित किए हुए हैं, बल्कि ऐसा लगता है अपने स्वयं के हितों के आधार पर भविष्य की रणनीतियों पर भी काम कर रहे हैं। अफ्ग़ानिस्तान में भविष्य में शांति कायम रहेगी या रक्तपात जारी रहेगा, यह काफी हद तक इन देशों पर निर्भर करेगा। यह देखा जाना बाकी है कि ये सभी ताकतें भविष्य में तालिबान के साथ कैसा व्यवहार और रिश्ते रखते हैं।

(लेखक उर्दू दैनिक इंकलाब दिल्ली के रेजिडेंट एडिटर हैं) yamen@inquilab.com

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