उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद सोशल मीडिया और व्हाट्सप्प ग्रुप्स में एक वोट शेयर का ऐसा डाटा भी पेश क्या जा रहा है जिसमें ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम को वोट कटवा बना कर देखाया जा रहा है
उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद जहाँ भाजपा को बड़ी जीत मिलि वहीं कई संस्था, पार्टियाँ, और यहाँ तक कि मुस्लिम समुदाय के लोग इसके ज़िम्मेदार ओवैसी के सर थोप रहे हैं. इसके लिए सोशल मीडिया और व्हाट्सप्प ग्रुप्स में एक वोट शेयर का ऐसा डाटा भी पेश क्या जा रहा है जिसमें ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम को वोट कटवा बना कर देखाया जा रहा है.
दिलचस्प बात यह है कि इस डाटा में कॉंग्रेस और बसपा जैसी एसी पार्टियों के डाटा को पेश नहीं क्या जा रहा है जिस के कारण सपा के उम्मेदवारों को हार का सामना करना पड़ा. तो क्या यह मान लिया जाए कि सभी को चुनाव लड़ने का हक़ है और दूसरे को हराने का भी हक़ है सिर्फ ओवैसी को यह हक़ हासिल नहीं हैं?
कॉंग्रेस और बसपा के कारण भाजपा उम्मेदवारों की जीत
जो लोग भाजपा की जीत का सारा ठेकरा ओवैसी के सर फोड़ने के लिए एक डाटा शीट लेकर घूम रहे हैं जिसमें कई बुद्धिजीवी मुस्लिम भी शामिल हैं, वो भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस और बसपा के उस हर सीट का डेटा जोड़ना भूल गए हैं जहाँ कॉंग्रेस या बसपा के कारण भाजपा उम्मेदवारों को जीत मिली है.
वास्तव में 100 एसी सीटें हैं जहां कांग्रेस और बसपा ने सपा की जीत को प्रभावित किया है. इसके अलावा, इस बात का भी तज़किरा नहीं क्या जा रहा है कि ढेरों सीटों पर यादवों ने सपा के बजाए भाजपा को क्यों पसंद किया और इसी तरह जाटों ने आरएलडी को नकार कर भाजपा को वोट को दिया? सवाल यह है कि क्या केवल एक ही पार्टी को दोष देना उचित है जिसे सपा की हार के लिए केवल कुछ सौ वोट मिले हैं.
मुसलमानों ने एकजुट होकर अखिलेश यादव को वोट क्या है इस हक़ीक़त के बावजूद कि अखिलेश यादव ने मुसलमानों के मुद्दों में कंजूसी देखाई है, और किसी भी सार्वजनिक उपस्थिति से खुद को बचाने की कोशिश की है ताकि उनकी पार्टी पर मुस्लिम हिमायती होने का टैग न लग सके, फिर भी वो अपने ही समुदाय के वोट हासिल करने में कामयाब नहीं हो सके.
स्वामी प्रसाद मौर्य के लोगों ने उनका साथ क्यूँ छोड़ दिया
तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों के दुष्ट प्रचार को आगे बढ़ाने के बजाय सही बात को लोगों तक पहुचना ज़रूरि है कि ये कैसे स्वयं अपनी अक्षमता के कारण विफल हुए. स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे लोगों के साथ क्या हुआ और खुद उनके ही क्यों ने उनका साथ क्यूँ छोड़ दिया.
प्रदेश में कुल 403 विधानसभा सीटें हैं. सरकार बनाने के लिए 202 सीटों की जरूरत होती है. भाजपा को 41.03 फीसदी यानी 3,80,51,721 वोट मिला. इन वोटों के सहारे वह 255 सीट पाने में कामयाब रही. सपा को कुल वोट 32.06 फीसदी यानी 2,95,43,934 मिले. इससे सपा गठबंधन को 125 सीटें मिली. सत्ता तक पहुंचने के लिए उसे 77 सीटों की और ज़रूरत थी, लेकिन वहां तक नहीं पहुंच सकी.
धामपुर, कुर्सी, बीसलपुर, नकुड़ व कटरा ऐसी सीटें हैं जिसे सपा 200 से 400 वोटों के अंतर पर हार गई.
सपा जहां 200 से 1000 के बीच हारी
धामपुर 203
कुर्सी 217
बीसलपुर 307
नकुड़ 315
कटरा 357
शाहगंज 719
मुरादाबाद नगर 728
सुल्तानपुर 1009
मानिकपुर 1048
छिबरामऊ 1111
वो सीटें जो 1000 से 5000 से हारी
मड़ियाहूं, सीतापुर, बदलापुर, श्रावस्ती, औराई, सलोन, फूलपुर, बिंदकी, अलीगंज, इटावा, बहराइच, जलेसर, मधुबन, जलालाबाद, तिर्वा, भोगांव, मोहम्मदी हैं.
5000 से 10000 के बीच वाली सीटें
कोल, महमूदाबाद, मेंहदावल, खागा, बीकापुर, राबर्टसगंज, मिलक, कन्नौज, ज्ञानपुर, दुद्धी, शाहाबाद, गोंडा, नरैनी, मैनपुरी, पीलीभीत, देवबंद, रायबरेली, हस्तिनपुर, सहारनपुर नगर, मलिहाबाद, मेरठ दक्षिण, गोपामऊ, जौनपुर, सिकंदरराव, सांडी, नवाबगंज, चकिया, शाहजहांपुर, करछना, दातागंज, लंभुआ, ददरौला व सिधौली है.
10000 से 13000 वाली सीटें
बिसवां, वाराणसी दक्षिण, बरेली कैंट, सैयदराजा, बलरामपुर, बदायूं, धनौरा, भोगनीपुर, पयागपुर, महोली, नानपारा, बारा, खलीलाबाद, धौलाना, अलीगढ़ व आयाशाह है.
यह समझना ज़रूरि है की भारत मल्टीपार्टी सिस्टम का एक लोकतंत्र है और अल्पसंख्यक हित के लिए खड़े होने वाले राजनीतिक दल दूसरे मुख्यधारा की पार्टियों के साथ निश्चित रूप से अपना राजनीतिक जद्दोजह कर सकते हैं और करना भी चाहिए. इसपर किसी तरह की आपत्ति जाताना लोकतंत्र के विचार को दबाने के अलावा और कुछ नहीं है.