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Friday, August 22, 2025

नफरत और सांप्रदायिकता के खिलाफ बिना भेदभाव के सख्ती दिखाना ज़रूरि

इंडियानफरत और सांप्रदायिकता के खिलाफ बिना भेदभाव के सख्ती दिखाना ज़रूरि

नफरत, उकसावे और सांप्रदायिकता के खिलाफ सख्ती दिखाना जरूरी है, लेकिन भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं हो सकती। क़ानून की नज़र में सब बराबर हैं, तो..??

लेख: डॉ. यामीन अंसारी

“वर्षों पहले की बात है। जून का महीना था जब आपातकाल की घोषणा की गई थी। इसमें देश के नागरिकों से सभी अधिकार छीन लिए गए। इनमें से एक अधिकार जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार भी था, जो संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सभी भारतीयों को प्रदान किया गया है। उस समय भारत के लोकतंत्र को कुचलने का प्रयास किया गया था। देश की अदालतें, हर संवैधानिक संस्था, प्रेस, सब पर नियंत्रण था। सेंसरशिप ऐसी थी कि बिना मंजूरी के कुछ भी नहीं छापा जा सकता था।

आपातकालीन क्षण

मुझे याद है जब मशहूर गायक किशोर कुमार ने सरकार की तारीफ करने से इनकार कर दिया था तो उन पर पाबंदी लगा दी गई थी। रेडियो पर उनकी एंट्री हटा दी गई, लेकिन तमाम कोशिशों, हजारों गिरफ्तारियों और लाखों लोगों पर अत्याचार के बाद भी भारत की जनता का लोकतंत्र पर से भरोसा नहीं डगमगा, बिल्कुल भी नहीं। भारत की जनता के लिए सदियों से चले आ रहे लोकतंत्र के मूल्यों, हमारी रगों में जो लोकतांत्रिक भावना है, उसकी आखिर जीत हुई है. भारत के लोगों ने लोकतांत्रिक तरीके से आपातकाल को हटा दिया और लोकतंत्र की स्थापना की। पूरी दुनिया में तानाशाही मानसिकता, तानाशाही प्रवृत्ति की लोकतांत्रिक हार का ऐसा उदाहरण मिलना मुश्किल है।” कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के लोगों को कुछ इस प्रकार आपातकाल की स्थिति से परिचित करवाया था।

संविधान, लोकतंत्र, स्वतंत्रता, समानता, मौलिक अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे शब्द निश्चित रूप से एक राष्ट्र को मजबूत करने के महत्वपूर्ण अधिकार हैं। इन पर चलते हुए और इनका पालन करते हुए हमारा सिर गर्व से ऊंचा हो जाता है, जबकि इन पर पहरा बैठा दिया जाए तो देश और राष्ट्र के दामन पर एक ऐसा धब्बा लग जाता है, जिसको मिटाना आसान नहीं होता।

अघोषित आपातकाल

इसीलिए आज से 47 साल पहले देश में घोषणा करके आपातकाल लागू किया गया था, जिसकी यादें फीकी नहीं पड़ी हैं, पर जब प्रधानमंत्री मोदी वर्षों पहले भारत के लोकतंत्र पर लगे इस बदसूरत दाग की याद दिलाते हैं तो आज के हालात भी सामने आ जाते हैं, जिसकी व्याख्या कुछ लोग अघोषित आपातकाल के रूप में करते हैं। मोदी ने 25 जून 1975 का उल्लेख करते हुए कहा कि देश की अदालतें, संवैधानिक संस्थाएं, प्रेस, सब कंट्रोल में था। संयोग से आज भी यही आरोप उनकी सरकार भी पर लगाए जा रहे हैं। इन कॉलमों में मीडिया के एक बड़े हिस्से के बारे में बार-बार लिखा जा चुका है। न्यायपालिका और संवैधानिक संस्थाओं के मौजूदा रवैये पर भी विभिन्न वर्गों ने सवाल उठाए हैं। पुलिस और प्रशासन की भूमिका को तो कितनी बार खुद अदालतों ने भी आईना दिखाया है। चाहे दंगों का मामला हो, विरोध प्रदर्शनों और धरनों के बाद गिरफ्तारी या समाज के एक वर्ग के खिलाफ भेदभाव का मामला हो, पुलिस ने बार-बार लोगों, खासकर अल्पसंख्यक समुदाय के विश्वास को डगमगाया है।

नुपुर शर्मा के बारे में सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी

हाल ही में नुपुर शर्मा पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पैग़बर मुहम्मद स.अ. व. की शान में गुस्ताख़ी करने वाली भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नुपुर शर्मा को फटकार लगाते हुए कहा कि ”नुपुर शर्मा की बदज़ुबानी ने पूरे देश में आग भड़का दी है। देश में जो कुछ हो रहा है उसके लिए सिर्फ नुपूर शर्मा ही जिम्मेदार हैं। हमने उस टीवी डिबेट को देखा है कि उन्हें कैसे उकसाया गया था, लेकिन जिस तरह से उन्होंने यह सब कहा और बाद में कहा कि वह एक वकील हैं, यह शर्मनाक है। उन्हें पूरे देश से माफी मांगनी चाहिए।” सुनवाई के दौरान नुपुर शर्मा के वकील ने दावा किया कि उन्हें धमकियां मिल रही हैं। इसपर अदालत ने उससे पूछा कि ”उन्हें धमकियां मिल रही हैं या वह सुरक्षा के लिए खतरा बन गई है। जिस प्रकार उन्होंने पूरे देश में भावनाओं को उभारा है। देश में जो हो रहा है उसके लिए यह महिला ही जिम्मेदार है।”

साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने उस पहलू की ओर इशारा किया जिसमें पुलिस या प्रशासन कानून लागू करने के नाम पर दोहरा मापदंड अपनाता है। इसके लिए कोर्ट ने सीधे दिल्ली पुलिस को फटकार लगाई। अदालत ने कहा, “जब आप दूसरों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करते हैं, तो उन्हें तुरंत गिरफ्तार कर लिया जाता है, मगर जब यह आपके खिलाफ होता है, तो किसी को आपको छूने की हिम्मत भी नहीं होती।”

सरकार से कुछ सवाल

ज्ञात हो कि 17 जून को मुंबई पुलिस की एक टीम नुपुर शर्मा से पूछताछ करने दिल्ली आई थी, लेकिन महाराष्ट्र पुलिस को दिल्ली पुलिस से कोई सहयोग नहीं मिला। आखिरकार महाराष्ट्र पुलिस पांच दिन की मशक्कत के बाद लौट गई। वहीं कोलकाता पुलिस ने भी नपुर शर्मा को कई बार समन जारी किया है, लेकिन दिल्ली पुलिस से सम्मन की तामील में कोई मदद नहीं मिल रही है। अब अगर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी पर सरकार और पुलिस प्रशासन कोई दिलचस्पी दिखाते हैं तो प्रश्न उठता है कि पूरे देश को संकट में डालने वाली नुपुर शर्मा को कब गिरफ्तार किया जाएगा? दूसरी बात, क्या नपुर शर्मा के लिए सुरक्षा के विशेष इंतजाम करने वाली दिल्ली पुलिस अब हरकत में आएगी? इसके अलावा नुपूर शर्मा टीवी पर कब आएगी और फिर बिना शर्त माफी मांगेगी? और उस टीवी चैनल के खिलाफ कब कार्रवाई होगी जिस पर बैठ कर नुपुर ने इस्लाम और मुसलमानों के बारे में अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया था? ये वो सवाल हैं जो सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद न्याय पसंद वर्ग की ओर से उठाए जा रहे हैं।

न्यायपालिका से कुछ सवाल

कुछ सवाल न्यायपालिका से भी पूछे जा सकते हैं। एक तो यह कि अगर सुप्रीम कोर्ट को सच में लगता है कि नुपुर शर्मा ने भड़काऊ और अक्षम्य अपराध किया है तो गिरफ्तारी का आदेश क्यों नहीं दिया? सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का क्या मतलब निकाला जाए? नुपुर शर्मा को अभी तक गिरफ्तार नहीं किया गया है, लेकिन फैक्ट चेकर और पत्रकार मुहम्मद जुबैर की गिरफ्तारी और फिर उन्हें जमानत नहीं मिली, और जिसके लिए भारत के सॉलिसिटर जनरल तुशार मेहता तक मैदान में हैं। फिल्म के एक दृश्य के साथ किए गए चार साल पुराने ट्वीट पर गिरफ्तार किए गए जुबैर की अदालत में बार बार जमानत अर्ज़ी ख़ारिज हो रही है। इन सवालों के जवाब भले ही अभी न मिलें, लेकिन पूरे देश में इस बात पर बहस अवश्य होगी कि संविधान की सर्वोच्चता क़ायम रहेगी या नहीं।

जनता का विश्वास बहाल करना संवैधानिक और सरकारी संस्थाओं की जिम्मेदारी है

बहरहाल, यह संवैधानिक और सरकारी संस्थानों की जिम्मेदारी है कि वे न्यायसंगत लोगों का विश्वास बहाल करें। क़ानून की नज़र में अगर ज़ुबैर ने वैमनस्य फैलाया और दो वर्गों के बीच खाई पैदा की है तो उसके विरुद् अवश्य कार्रवाही होनी चाहिए, मगर साथ ही कानून को यह भी देखना चाहिए कि जो लोग खुले तौर पर मुसलमानों के नरसंहार की बात करते हैं, उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुचाते हैं, धार्मिक हस्तियों की गरिमा का अपमान करते हैं और कैमरों के सामने अपने अनुयायियों को ख़ून ख़राबा करने की शपथ दिलाते हैं, उनके खिलाफ क्या कार्रवाही की जाती है। वहीं उदयपुर जैसी घटनाओं को अंजाम देने वाले भी सजा के पात्र हैं। देश में नफरत की इस चिंगारी को आग में बदलने से रोकने के लिए न केवल न्यायपालिका बल्कि सरकार, प्रशासन और पुलिस को भी हर संभव कदम उठाने होंगे। किसी भी सभ्य समाज में उन तत्वों के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता जो दूसरों की धार्मिक भावनाओं को आहत करते हैं, समाज में घृणा और उत्तेजना पैदा करते हैं। कोई कानून या धर्म भी इसकी इजाजत नहीं देता।

(लेखक इंकलाब दिल्ली के रेजिडेंट एडिटर हैं)

[इस लेख में व्यक्त विचार और राय पूर्णतया लेखक के निजी विचार हैं और ज़रूरि नहीं कि वे हम्स लईव के आधिकारिक नीति को दर्शाते हों।]

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