ईरान-इज़राइल टकराव में दो सरकारें लड़ रही हैं और मासूमों की लाशों पर सियासत जश्न मना रही है।
इन दिनों ईरान और इज़राइल के बीच बढ़ती टकराव की ख़बरों ने दुनिया भर में हलचल मचा दी है। हर तरफ लोग इस टकराव पर अपने-अपने नज़रिए से प्रतिक्रिया दे रहे हैं। सोशल मीडिया पर तो जैसे एक अलग ही उत्सव सा चल रहा है — कोई लिख रहा है “ईरान ने मुंहतोड़ जवाब दिया”, कोई कहता है “इज़राइल का घमंड टूटा”, कोई तो यहां तक लिखता है “दोनों देश तबाह हो जाएँ तो अच्छा है”।
इधर अमेरिका अपनी पुरानी शैली में दबाव की राजनीति में उतर चुका है। लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि इन सब चर्चाओं में कोई उन जमीनी सच्चाइयों की बात नहीं करता — उन बेगुनाहों की, जिन पर यह कहर टूटा है। कोई उन बच्चों से पूछे जो रातों को बमों की आवाज़ में नींद से चौंक कर उठते हैं। कोई उन परिवारों से जाने जिनकी ज़िंदगियाँ मलबों के ढेर में दब गई हैं।
दुख तो तब होता है जब अपने ही देश में कुछ लोग धर्म की ऐनक पहनकर मौतों की गिनती करने लगते हैं। किसी मासूम की मौत पर खुशी जताना किस इंसानियत का परिचायक है? जिसका दिल इंसानी दुख से न पसीजे, कम से कम वह इतना तो समझे कि किसी भी मासूम की हत्या पर उल्लास नहीं मनाया जाता।
इज़राइल द्वारा फिलिस्तीन के मासूमों पर ढाए गए जुल्म का हिसाब अवश्य होना चाहिए। इंसाफ के बिना टिकाऊ शांति मुमकिन नहीं। लेकिन यह भी समझना होगा कि जंग कभी दो देशों के आम नागरिकों के बीच नहीं होती। यह होती है सत्ता के नशे में डूबी हुकूमतों के बीच — और सबसे बड़ी त्रासदी यह कि उसकी क़ीमत गरीब-गुरबा और मेहनतकश अवाम चुकाते हैं।
आज की यह ईरान-इज़राइल जंग न केवल पश्चिम एशिया के लिए, बल्कि पूरी दुनिया के लिए घातक सिद्ध हो सकती है। तेल की क़ीमतों में उछाल हो, वैश्विक व्यापार में रुकावटें हों या अंतरराष्ट्रीय तनाव बढ़े — हर छोटे-बड़े देश की अर्थव्यवस्था पर इसका असर पड़ेगा। हम चाहें न चाहें, यह आग हम तक भी पहुँचेगी।
ऐसे में भारत सरकार का अब तक का रुख संतुलित और दूरदर्शितापूर्ण रहा है। भारत का तटस्थ बने रहना ही फिलहाल सबसे विवेकपूर्ण नीति है। हमारे ऐतिहासिक गुटनिरपेक्ष रुख (Non-Alignment) और दोनों देशों — इज़राइल और ईरान — के साथ महत्वपूर्ण रणनीतिक संबंधों को देखते हुए यह संतुलन आवश्यक है।
हाँ, इतना ज़रूर है कि फिलिस्तीन के निहत्थे नागरिकों पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ़ भारत को एक नैतिक और स्पष्ट स्वर में आवाज़ उठानी चाहिए। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अन्याय के प्रति चुप्पी हमारी नैतिक जिम्मेदारी के अनुरूप नहीं।
हमें बतौर भारतीय समाज, जंग का जश्न मनाने के बजाय यह सोचना चाहिए कि शांति कैसे स्थापित हो। युद्ध से कोई विजयी नहीं निकलता। हर युद्ध में सबसे ज़्यादा नुकसान वही उठाता है, जिसने न हथियार उठाया न लड़ाई चाही — एक मासूम बच्चा, एक साधारण नागरिक, एक बेगुनाह औरत।
यही समय है शांति, इंसाफ़ और समझदारी की आवाज़ को बुलंद करने का।
अस्वीकृति
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